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जितनी बड़ी दुनिया बाहर है, उतनी ही बड़ी एक दुनिया हमारे अन्दर भी है, अपने ऋषियों मुनियों की कहानियां सुनकर लगता है कि वे सिर्फ भीतर ही चले होंगे ! यह किताब इन दोनों दुनियाओं को जोड़ती हुई चलती है ! यह महसूस कराते हुए कि भीतर की मंजिलों को हम बाहर चलते हुए भी छू सकते हैं, बशतें अपने आप को लादकर न चले हों ! उतना ही एकांत साथ लेकर निकले हों जितना एकांत ऋषि अपने भीतर की यात्रा पर लेकर निकला होगा ! अनुराधा बेनीवाल की इस एकाकी यात्रा में आप ज्ञान से भारी नहीं होते, सफ़र से हलके होते हैं ! न उसने कहीं ज्ञान जुटाने की ज्यादा कोशिश की, और न पाठक को वह थाती साँपकर अमर होने की ! इसीलिए शायद यह पुस्तक यात्रा-वृतांत नहीं, खुद एक यात्रा हो गई है ! एक सामाजिक, संस्कृतिक यात्रा, और एक प्रश्न-यात्रा जो शुरू हो इस सवाल से होती है कि आखिर कोई भारतीय लड़की 'अच्छी भारतीय लड़की' के खांचों-सांचों की पवित्र कुंठाओं के जाल को क्यों नहीं तोड़ सकती ? सुदूर बाहर की इस यात्रा में वह भीतर के कई दुर्लभ पड़ावों से गुजरती है, और अपनी संस्कृति, समाज और आध्यात्मिकता को लेकर कुछ इस अंदाज में प्रश्नवाचक होती है कि अपनी हिप्पोक्रेसियों को देखना हमारे लिए यकायक आसान हो जाता है ! जिंदगी के अनेक खुशनुमा चेहरे इस सफ़र में अनुराधा ने पकडे हैं ! और उत्सव की तरह जिया है ! इनमे सबसे बड़ा उत्सव है निजता का ! निजी स्पेस के सम्मान का जो उसे भारत में नहीं दिखा ! अपने मन का कुछ कर सकने लायक थोड़ी-सी खुली जगह, जो इतने बड़े इस देश में कहीं उपलब्ध नहीं है ! औरतों के लिए तो बिलकुल नहीं !